ये मंजर भी बड़ा ही दिलचस्प और नायाब है
दरिया है आखों में फिर भी कोई ख्वाब जलता है ..
भूल तो गया उसका साया भी उसको यहाँ
हैरानी की बात है,कोई है जो परछाई सा चलता है ...
मुस्तकिल खुशमिजाजी का न अफ़सोस कीजिये
उसके चेहरे पर भी रोज कुछ शाम सा ढलता है....
गिरता उन्हें देख भूल गये जोर से ठहाके लगाने वाले
बचपन में गिरे थे कई बार तभी आज कदम संभलता है..
पत्थर से है हालात तो क्या कोशिश कर के देखेंगे
सुना है के इस जहाँ में आग से वो लोहा भी पिघलता है
तुम यूं ही न रहोगे सदा न हम रहेंगे ऐसे ही,
वक़्त ही तो एक ऐसा है जो सभी का बदलता है ....
प्रीती