गुरुवार, 15 मार्च 2012

लगे कभी

लगे कभी सब कुछ पाया सा , कभी लगे सब खाली सा 
इक सोच में डूबी रहती हू, खुद से ही  झगड़ती रहती हू 
घुटनों पे अपने सर को टिकाकर, जाने कहा विचरती हू 
कभी लगे सब सच्चा सा, कभी लगे सब  कहानी सा 
मेरा अतीत मेरा पीछा जाने  क्यूँ नहीं छोड़ता 
मुरझाये हुए इस फूल को क्यूँ कोई नहीं तोड़ता 
कभी लगे होठों की हँसी कभी आखों में पानी सा 
इंतज़ार है अब तो बारिश का के शायद खुल के रो पाऊ
मिला नहीं जो मेरा था के शायद अब उसको खो पाऊ
कभी लगे के उम्र बीत गयी कभी लगे जवानी सा 
बहार आई तो सहम गया मन के अब पतझड़ भी आएगा 
मिली आज जो खुशियाँ है कल कोई और छीन ले जाएगा 
कभी संभलते हुए कदम तो  कभी दिल की मनमानी सा 
यादों के  बादल हर दिन और हर पल घटाओं से छा जाते है 
सूखी गालो की धरती को वो अक्सर भिगों कर जाते है 
कभी गौतम के सधे कदम तो कभी हाल मीरा दीवानी सा 
ऐसे खुद को रोज समझाना बना कर कोई नया सा बहाना 
खुश हू मै उसके बिना नहीं उससे अब कोई भी याराना 
कभी लगे दिलासा है कभी लगे खुद से ही बेईमानी सा 
प्रीती बाजपेयी 



2 टिप्‍पणियां:

Dr. Preeti Dixit ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अनुराग त्रिवेदी ने कहा…

bahut hi bhavvpurvak abhivyakti aur ... saral sehaz bhasha se chandpravaah fot kar etna acha lekhan kiya

ache lekh aur vicharo ko sehajta se darshane ke liye aapka abhaar !!!
bhaut acha lekhan