फिर मेरी आखों से दूर है ए नींद तू आदत से मजबूर है
मुझको अपना दुश्मन ना समझ इधर आकर करीब बैठ मेरे
उसके खयालो से तोड़ जरा वास्ता वो नहीं है अपनों में तेरे !
एक बात जरा तुझसे है करनी तू अपने कान इधर ही लगाना
तुम मेरी हो या उसकी हो क्यूँ उसके साथ ही तेरा आना जाना !
तुम्हे पता है इन आखों पे जब हौले से तुम सजती हो
भर लेती आलिंगन में पलकें अभिमान ज्यूँ तुम तजती हो !
देखो कितनी बेजारी से ये कैसे तुम्हे पुकार रही
आकर इन्हें गले लगा लो ये रस्ता तेरा निहार रही !
देखो अब तुम आ भी जाओ कही रूठ ना जाएँ आखें तुमसे
बंद कर दिए पलकों ने दरवाजे तो फिर न शिकायत करना हमसे !
हाँ मुझको खबर है ये भी तू इंतज़ार में किसी के चूर है
पर ये बात क्यूँ भूलती है पगली वो शख्स बड़ा मगरूर है !
ना छोड़ कर जा तू ऐसे, जाना तेरा बड़ा मशहूर है
आकर फिर से गले लगा ले इन आखों का देख छिन गया नूर है
......प्रीती
1 टिप्पणी:
Waah ~ !!!
नींद से मैत्री वार्ता करती आपकी भावुक रचना.. बहुत बहुत ही अच्छी है ..
बहुत सरलता और सहजता से सबकुछ कह गाई .. :) बहुत खूब
:एहसास
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