गुरुवार, 29 नवंबर 2012

आज रात के तकिये से


आज रात के तकिये से कुछ हिसाब उसे चुकाना था
नींद नयी नयी सी थी पर उसका ख्वाब वही पुराना था

उँगलियों में कोई दर्द छिपा था वो मुठी बांधें बैठी थी
किसी बात से खफा थी पलकें वो चुप्पी साधें लेटी थी

कितनी थपकी दी थी खुद को ,बार बार समझाती थी
उसे नींद है आ रही फिर भी उठ उठ बैठ वो जाती थी


झूठी तसल्ली के मौसम भी बरसे थे कई बार वहाँ
बिस्तर में बेचैनी भी मिलती थी अक्सर मुफ्त यहाँ

अनचाहे से ख्वाब को आँखों से अपनी मिटाना था ..
आज रात के तकिये से कुछ हिसाब उसे चुकाना था।।

प्रीती

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