परजीवी हू, परजीवी हू ,बस परजीवी हू मै!'
ना किसी काम की, ना किसी काज की
सौ मन आनाज मै खाती हू,
मै नीरीह बहुत ,लाचार बहुत
बस ऐसे ही जिए मै जाती हू...
मेरी रोटी रहम की है और
कपड़े मेरे किसी वहम के है
जब हाथ फैलाती हू तो मुझ
पर भी कुछ तो गुजरती है.....
मै परजीवी हू,परजीवी हू ,बस परजीवी हू मै!
मेरी चादर बहुत ही छोटी है
और सपने बहुत ही लम्बे है,
इस चादर में इन सपनो को
हां बहुत सी उलझन होती है...
मै हस्ती ही रहती हू हमेशा
पर दिल में कही कोई रोती है
मेह्नत पे बड़ा भरोसा था ,
पर लगता है किस्मत भी कुछ होती है
मै परजीवी हू,परजीवी हू ,बस परजीवी हू मै!
मांग मांग कर अब तक मैंने
इतनी बार क़त्ल किये है खुद के
जिन्दगी जैसे एक क़र्ज़ हो मुझ पर
इतने एहसान है मुझपे सबके....
हां कह दो तुम भी सवाल अपना
की मुझे शर्म नहीं क्यूँ आती है
सांसें मेरी क्यूँ चुल्लू भर पानी में
नहीं डूब मर जाती है.....
के क्यूँ मै परजीवी हू ? के क्यूँ मै परजीवी हू
मेरी आँखों में भी आंसू है
शर्मिंदगी मुझे भी होती है
जब दौड़ -दौड़ के इस रेस में
जीत कभी ना होती है!
हर बार कही कुछ कमी हो गयी
हर बार मै पीछे छुट गयी ,
कही किसी ने लूटा मुझको तो
कभी लकीरे रूठ गयी,
मै थक गयी हू, अब हार गयी हू
पर जीना मुझको अब भी होगा
किस्मत कितना भी हाथ छुड़ाए
मुझे फिर भी जिंदगी को पकड़ना होगा
मै फिर से लड़खड़ा के गिर जाती हू..
फिर से किसी की थपकी मांगू
फिर से किसी कन्धा चाहू ...
मै फिर परजीवी बन जाती हू
बस परजीवी ही रह जाती हू
मै परजीवी हू,परजीवी हू ,बस परजीवी हू मै!
...प्रीती
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