शने: शने : जीवन एक नए मोड़ की दिशा में अग्रसारित है वो भी बिलकुल अँधा मोड़ मुझे नहीं पता कि मोड़ के उस पार क्या है , पर आशा है बिलकुल एक साधारण इंसान कि तरह कि सब अच्छा ही होगा , पर मेरा ह्रदय भी इस शाश्वत सत्य से परिचित है कि इस संसार में तो क्या कही भी "सब कुछ अच्छा" जैसा नहीं होता | सम्पूर्ण जीवन द्वन्द है , जहाँ अच्छा है , वहा बुरे का होना स्वाभाविक है एवं प्राकृतिक व्यवस्था है| इसे चाहकर भी मैं नकार नहीं सकती , पर ये किस प्रकार का भय है जिससे मै भयातीत हूँ, क्यूँ मैं चाहकर भी अपने कदम आगे बढ़ाने में हिचकिचा रही हूँ | मन व्यथित है आज बहुत इस संसार के "बेटियों के पराये धन" के रिवाज से , अपनी चौखट कैसे छोड़ दूँ , अपना आँगन जहाँ अपनी एक उम्र को एक व्यक्तित्व का लिबास लेते देखा, कैसे छोड़ दूँ वो ऊँगली पापा कि जिसने अभी तक मुझे अपनी लाडली बिटिया बनाकर संजोया और संवारा, कैसे उस माँ को छोड़ कर चली जाऊ जिसने मुझे आज तक कभी बड़ा ही नही होने दिया| बड़े बेरहम है ये रस्मो रिवाज जो चन्द मिनटों की सात फेरों की रस्म मात्र से एक आधी उम्र को भुला कर नये सिरे से जीने को बाध्य कर देता है| वो उम्र जो किसी के लिए भी सबसे प्यारी होती है ना जिम्मेदारियों पर खरे उतरने का तनाव और ना एक मर्यादा और सीमाओं की डेहरी, बस आजाद पंछी सी कही भी उडों, फुदकते रहो और कभी लड़खड़ाने लगो तो माँ और पापा हमेशा सम्हालने को तैयार| ना खुलकर रोने कि आजादी , ना भाई बहनों के बाल पकड़कर उनसे उलझने का मौका, ना बिना सोचे समझे मेहमानों के सामने लगे नाश्ते में से कुछ भी उठाकर खा लेने कि बेपरवाही का आलम, ना दौड़कर पतंग लूटने और मांझा काटने के मस्ती, ना बारिश में बेफिक्री से भीगने और नाव तैराने की आजादी , बचपन भी कितना सरल और मासूम , छोटी छोटी ख्वाहिशों में ही पूरा संसार हासिल था | अब वो बात नही तहजीब और अदब के लिबास में खुद को कही जिन्दा दफना दिया , जिम्मेदारियां, परिपक्वता , सभ्य और सुशील बनने और समाज के बनाये पैमानों पर खरे उतरने में जाने कितने ही घाव खुद को खुद हाथों से दिए पर आज भी लगता है कि कुछ कमी है अब भी | बचपन में जल्दी से बड़े हो जाने का मन करता था पर तब कहाँ किसी ने बताया था कि बचपन सबसे सुन्दर पड़ाव है जीवन का | इस बड़े होने में कितना कुछ गवाना पड़ता है इस बात का एहसास शायद बड़े होकर ही होता है | बचपन तुम कहा गये और क्यूँ गये.....
कुछ ख्वाब भर के आँखों की डिबिया में बंद किये बैठी हूँ मै, जाने कब ये पलकों के परदे खुल जाए ..और ये ख्वाब दुनिया को दिख जाएँ.......
मंगलवार, 17 जनवरी 2023
रविवार, 8 जनवरी 2023
साल नया है ।
हम भी वही, जीवन भी वही है,
पर उम्मीदों का त्योहार नया है।
रात वही , और नींद वही है,
पर ख्वाबों का आकाश नया है।
प्रीत वही, प्रीतम भी वही है,
पर मेरा ये एहसास नया है।
सर्द वही, कोहरा भी वही है,
पर ठिठुरन का अंदाज नया है।
दोस्त वही, और दुश्मन भी वही,
पर रिश्तों का संसार नया है।
रूप वही, श्रृंगार वही है,
जीवन में फिर साल नया है।
© प्रीती
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