आज रात के तकिये से कुछ हिसाब उसे चुकाना था
नींद नयी नयी सी थी पर उसका ख्वाब वही पुराना था
उँगलियों में कोई दर्द छिपा था वो मुठी बांधें बैठी थी
किसी बात से खफा थी पलकें वो चुप्पी साधें लेटी थी
कितनी थपकी दी थी खुद को ,बार बार समझाती थी
उसे नींद है आ रही फिर भी उठ उठ बैठ वो जाती थी
झूठी तसल्ली के मौसम भी बरसे थे कई बार वहाँ
बिस्तर में बेचैनी भी मिलती थी अक्सर मुफ्त यहाँ
अनचाहे से ख्वाब को आँखों से अपनी मिटाना था ..
आज रात के तकिये से कुछ हिसाब उसे चुकाना था।।
प्रीती