शनिवार, 16 जुलाई 2016

मेरा अंजाम मिल जाएँ ...


मै जी लूं जिसमे उड़कर सब आजाद ख्वाहिशें 

एक जिंदगी मुझको यूँ तमाम मिल जाएँ ..

कितना अजीब है मेरा यूँ बेबात हसें जाना 
कोई हाथ जो फेरे मुझे आराम मिल जाएँ ...

कही बेनकाब ना हो जाएँ मेरे अपने ही कभी 
पैसे वाले ही कही न बेमकान मिल जाएँ ....

इंसान सब अब बेजुबान मंदिरों में बैठे है के 
पतथरों में ही शायद कही जुबान मिल जाएँ ...

पालते है जानवरों को,के इंसान जानवर हुआ
जानवरों में ही शायद कोई इंसान मिल जाएँ ....

पतथर की तरह क्यूँ है वो कोई ढूंढे तो अगर
आँखों में शायद जख्म का निशाँ मिल जाएँ...

मेरे साथ चल रही है मेरी उलझी हुई सांसें 
अब ये रुके और मुझे मेरा अंजाम मिल जाएँ ..