लहर चाहती है मिलना जिनसे
बस वही किनारे नही मिलते
बाकी मिलने को उससे सारे
के सारे बवंडर चले आते है ....
तुम ना आओ, तनहा फिर ये शाम सही
हम तक पहुचती तेरी ख़ामोशी का पैगाम सही
पंहुचा देती है मुझ... तक जो सदा तेरी
उन हवाओ के कर्जदार हुए जाते है ....
गूंजते थे जहा हँसी के ठहाके
वही अदब से अब मुस्कुराते है
देखते ही देखते कितने ही घर
ओहदों में सने मकां हुए जाते है....
तमाम उम्र जलाते रहे जो
साँसों को कागज की तरह
रो -रो के आज बेटे वही
पिता को मुखाग्नि दिए जाते है....
चलो छोडो क्या रखा है इन बातों में
बाते ही तो है आज के इस दौर में
जिसे भूख लगने पे लोग खाते है
औ प्यास लगने पे पिए चले जाते है .. preeti