कुछ ख्वाब भर के आँखों की डिबिया में बंद किये बैठी हूँ मै, जाने कब ये पलकों के परदे खुल जाए ..और ये ख्वाब दुनिया को दिख जाएँ.......
शनिवार, 22 सितंबर 2012
शुक्रवार, 7 सितंबर 2012
....
किसका था कुसूर ,मै कुछ कह नहीं सकती
जिन्दा होकर पत्थर सी सब सह नहीं सकती
कुछ तो मुझको करना ही होगा
बिखरना नहीं, अब संभलना होगा ....
हर उस रंग को चुन बैठी जिनका मेरी
उजली तस्वीरों से कोई वास्ता न था ...
हर उस लकीर को पकड़ बैठी जिनका
मेरे हाथों में कहीं भी रास्ता न था ...
हर उस रास्ते को ही चुन बैठी जिन पर
कभी ना जाने की खायी थी कसम ....
अपने से कर बैठी थी दुश्मनी और
गैरों से मांग रही थी अपनापन .....
इस सोच ने ही जाने क्या-क्या कर डाला
चली थी मै बदलने दुनिया को , ये देखो
इस दुनिया ने मुझको ही बदल डाला ......प्रीती
इस दिल को जाने किसकी जुस्तुजू हो बैठी
हम यूँ ही खड़े होकर हाथ मसलते रह गए
वो जाने क्या क्या हमसे कह रही थी
इशारों इशारों में , रास्ता रोक कर खड़ी थी मेरा
इतने ख्वाब सजाये हुए थे , लाख डराया उसने
उन ख़्वाबों के टूट कर बिखरने का
पर ना जाने क्यूँ ये बावरा मन
कुछ सुनने को राजी न था
अपनी जिद को रंगत देती हुई , खुद को बोतां हुआ
लम्हों की तस्वीरों में ,बंजर धरती की जागीरों में
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