परदे गिरा दिए मैंने इन झरोखो के, ये सूरज के किरने जो कभी
उम्मीद जगाती थी आज मेरा मखौल उडाती सी लगती है ।
आँखें बंद होती है रात में औ फिर से उठ बैठती है आधी सी नींद में
कौन सा ख्वाब टूट जाये जाने , आज फिर डरी सहमी सी लगती है ।
यक बयक यूँ ही कही कुछ ख्याल आते है इस नन्हे से दिल में
डरे से सहमे से और कुछ बातें होठों पे बुदबुदाती से लगती है।
कोने में बैठकर कही ख़ामोशी से रोते है वही अधूरे सपने अक्सर
जिनका मजाक उडाकर सबके सामने आँखे मुस्कुराती सी लगती है।
टूटे है ख्वाब कई, तभी शायद हर बात पर ये आँखें पिघलती है
हर बात बुरी लगती है दिल को और हर सांस सुई सी चुभती है |
प्रीती
2 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, प्याज़ के आँसू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Vry nice line
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